Tuesday, April 17, 2007

मन स्थिर कहॉ

कुछ सोच कर लिखने बैठे थे
स्मरण क्षीण पड़ जाता है
कितना ही सरल है मनुष्य
कभी किसी बात पे खुश
कभी किसी बात से परेशां
कुछ सोच कर लिखने बैठे थे
अब याद नहीं, मन स्थिर कहॉ
एकाकी एकटक नीले नभ को
तारों को, देखकर कुछ गढ़ा था
कविता लिखी थी शायद
तन्मयता के उस क्षण, कुछ सोचा
अब याद नहीं, मन स्थिर कहॉ
मिट्टी की सड़क पे, आहट रहित
दबे पैर, धुआं उड़ते देख
पैरों तले कि सुनहरी धूल देख
एक छन्द रचा था,
अब याद नहीं, मन स्थिर कहॉ
हाथ में कलम पकड़े,
कागज़ को मेज़ पर रख
उसके कोरेपन में विलीन हो
कुछ संवाद बुने थे
अब याद नहीं, मन स्थिर कहॉ

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