कभी कुछ चाह कर देखा है?
फ़ुर्सत मिले तो सोचना
उस दिन हम चले थे
दो दोस्तों के साथ
बस छुट्टी थी और धूप थी
फ़िर कुछ भी नहीं सोचा
शहर से ज़्यादा दूर भी ना गये
हरी दूब थी और कच्चे रास्ते
बन्दरों का तो मेला लगा था
हम भी शामिल हो गये
सर्दी की सुबह थी
कोई चार साल पहले की बात है
मोर भी थे वहाँ
एक कुएँ की मुंडेर पे हम बैठ गये
किसी ने कुछ भी नहीं कहा
बस देखते रहे सीध में
मन ने पूछा
कभी कुछ चाह कर देखा है?
उस घड़ी क्या चाहते?
हमने हँसी में उड़ा दी बात
फिर चल पड़े
मिट्टी के रास्तों में दोस्तों के साथ
बहुत आह्लाद था हर कंकड़ में
सब कुछ परिचित सा था
फिर वही सवाल
कभी कुछ चाह कर देखा है?
आज लगता है
चाहने मात्र में क्या विशेष है?
जितना है बहुत है
इसी को समेट कर रख सकें जीवन परयंत
तुम भी कभी ऐसे
कहीं जाओ तो बताना
कैसा लगता है सब कुछ इतना विशाल
फिर शायद तुम्हें भी ऐसा लगे...
इस विशालता में से
कभी कुछ चाह कर देखा है?
5 comments:
Now u must tell me from whr r u getting these poems, it lovely, never shared all these in coll :-)
girl u r an awesome poet, keep up the good work.
What abt my poem abt monsoon which i gave u in coll. do bring it with u, i don't have a copy of that.
Thanks :-) (I am not that good though).These days I have been dwelling too much on the past. Sweet Oblivion!
I have your poem among my stuff that should have reached Bangalore by now.
That was awesome ! Simple and Silent.
Ummm... How many such Masterpieces can you carve in a day? Nice one...
Bahut Khoob! Lagta hai jaise chahat bhi ghoonghat ke peeche dhaki simti baithi hai. Pyar se bulaane par bhi nahi aati, sharma kar rukh badal leti hai. Chahane ki seema hoti bhi hai, aur nahi bhi. Chahat ke bina jeevan adhoora hai, chahat dil me basi woh awaaz hai, jise sun kar hoti har raat savera hai.
Keep thinking, keep wishing, keep rising! :-)
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